Monday, October 25, 2010

गोडवाड़ की धरोहर ; कोट सोलंकियान

पाली जिले में जैन संस्कृति कितनी प्राचीन है जिसके प्रमाण हमें यहां के मंदिरों से तो मिलते ही हैं लेकिन कुछ ऐसे भी स्थान हैं जहां बिखरे हुए प्राचीन भग्नावशेष भी इसके साक्षी है कि हजारों वर्ष पूर्व भी यहां जैन संस्कृति अपने पूर्ण वैभव पर थी। ऐसा ही एक स्थान है कोट सोलंकियान। वर्तमान कोट गांव के पास बहने वाली नदी के पार अरावली की टेकरियों के बीच 200 फुट लम्बे चौड़े पत्थर से चुने गए विशाल चबूतरे पर विशाल मंदिर के खण्डहर जिसमें जैन मंदिरों के भग्नावशेष और विशाल बावड़ियों से ज्ञात होता है कि कभी यहां जैनों की बड़ी नगरी थी। इस नगरी को आसलगढ़ दुर्ग पाटण के नाम से पुकारा जाता था जिसमें पांच मंदिर और चार बावड़ियां थी। इसलिये इसको कोट पंचतीर्थी के नाम से आज भी पुकारा जाता है।
दुर्ग को कोट के नाम से भी कहा जाता है इसलिये इस अचल दुर्ग के ध्वंस हे जाने के बाद बसे नये गांव का नाम कोट रखा गया और नया गांव भी आज यहां आबाद है जो इसी गांव का एक भाग है। कोट गांव में भी एक जैन मंदिर बनवाया गया जिसमें चिन्तामणी पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित है, कोट के इस मंदिर का भी जीर्णोद्धार करवाकर उसे भव्य बनाया गया है। प्राचीन अचल दुर्ग की पंचतीर्थी के समान इसमें भी पांच मंदिर बनवाकर इसे पंचतीर्थी का रूप दिया गया है। कोट के नवनिर्मित मंदिर के दो द्वार रखे गये हैं जिनमें एक द्वार पूर्व दिशा में है जबकि मुख्य द्वार उत्तर दिशा में है। मंदिर में अचल दुर्ग के मंदिरों की प्राचीन प्रतिमाओं को यहां स्थापित किया गया है जिसमें एक प्रतिमा के बारे में कहा जाता है कि यह प्रतिमा दिन में अनेक भाव प्रदर्शित करती है। कोट गांव के पास अचल दुर्ग पाटण की पंचतीर्थी को दो हजार वर्ष पूर्व की बताई जाती है जो प्रकृति प्रकोप के कारण ध्वंस हुई थी मगर कुछ लोगों का मत यह भी है कि यह पंचतीर्थी भी सोमनाथ जाते हुये मोहम्मद गजनी की लूट तथा तोड़फोड़ की शिकार हुई है। इन पंचतीर्थी में से एक मंदिर का सभा मंडप और गर्भ गृह का कलापूर्ण द्वार आज भी वैसे ही विद्यमान है। इस स्थान का उत्खनन कार्य करवायें तो हजारों वर्ष पूर्व की संस्कृति की जानकारी मिल सकती है और गोडवाड़ क्षेत्र का दबा पड़ा इतिहास उजागर हो सकता है। यह गांव फुलाद-देसूरी मार्ग पर दिवेर (मेवाड़) जाने वाली सड़क पर स्थित है। यहां यात्रियों के लिये धर्मशाला की सुविधा प्राप्त है।

फुलाद-उदयपुर को जोड़ती रेल मार्ग की कहानी

भवन निर्माण की शालीन और अंग्रेजी शैली का प्रतीक हैं यह बंगला, जो अगर होता तो आज शायद बागोल का रेलवे स्टेशन के नाम से जाना जाता मगर सरकारी नीतियों में तबदीली के कारण इस गांव से गुजरने वाली रेलवे लाइन अरावली की पहाड़ियो के उस पर होती हुई उदयपुर ले जय गई, सो यह बंगला अब वन विभाग की चौकी के रूप में काम आ रह हैं । न केवल बागोल गांव बल्कि इस इलाके के हजारो बाशिंदों को यह पता नहीं होगा की यंहा से रेललाइन गुजरने वाली थी जो फुलाद से उदयपुर को जोड़ती होती । लेकिन अब यह मावली होते हुए उदयपुर जाती हैं, तो बीच में बागोल कंहा से आता। संवत १९७४ यानी बीसवी शताब्दी के दुसरे दशक में सन १९१० के आस पास यंहा से इस रेलमार्ग का प्रस्ताव था । रेलमार्ग के लिए पटरिया बिछाने से पहले की सारी तैयारिया पूरी कर ली गई थी सबुत के तौर पर इस इलाके की छोटी मोटी नदियों, नालो और ऐसे ही बालो पर बने समृद्ध पूल रेलमार्ग के प्रस्ताव की कहानिया कह रहे हैं। ये पुल इतने समृद्ध हैं कि बाद के बने कई जगहों के पुल टूटफुट गए, बह गए मगर वे आज भी जस के तस हैं। बागोल की उच्च माध्यमिक स्कूल के मुख्य द्वार के ठीक समक्ष स्थित प्रस्तावित रेलवे स्टेशन का यह भवन जिस तरह का बना हैं, वैसा गांव में कोई भी घर नहीं हैं। तब बंगले की शैली में बने इस भवन में अब जंगलात कर्मचारी बैठते हैं। रेल आने की कहानी सुनाते इस बंगले को याद करते गांव के बुजुर्ग आज भी आँखों में सुखद ख्वाब लेकर बताते हैं- 'रेल आती तो कितना अच्छा होता । बागोल का नक्षा ही बदल जाता'!

Sunday, October 24, 2010

इतिहास के आईने में बागोल की गाथा

आठवी सदी के आरम्भ में राजपूताने में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। इस काल के सबसे मजबूत राजवंश मरुधर और गुर्जर प्रदेश के प्रतिहार, मेवाड के गुहिलोत, चितौड और कोटा के मौर्य, परमार, चौहान, नाग और चापा थे परिवर्तित काल में भारत पर मुग़ल शासन के बाद अंग्रेजी राज से पूर्व राजपुताने की ऐतिहासिक थाती में परिवर्तन हुआ और एक नई संस्कृति का उदय हुआ, जो ठाकुर शाही की थी। राजा के नीचे इलाकाई और गाँव के ठाकुर। यह परंपरा भी आजादी के साथ सन 1947 के बाद ख़त्म हो गई। सन1952 में राजपुताना से राजस्थान का उदय हुआ, उसी राजपूताने की मारवाड़ रियासत और मेवाड रियासत के बीच झूलता रहा हैं पाली जिले का गाँव-बागोल।

बागोल का इतिहास 500 साल पुराना हैं बागोल के संस्थापको के वंशजो के मुताबिक सन1515 में यानि संवत 1572 में इसकी स्थापना की जानकारी हैं। जानकारी के अनुसार विक्रम संवत 1232 में वरसिंह चौहान ने जब हतुन्डिया के सिंगा राठोड को मारकर बेडा के 42 गाँवो पर अधिकार कर लिया था, तब मेवाड में रूपनगर के ठाकुरों ने देसुरी और आस पास के गाँवो की यात्रा की थी। उसमे अन्य गाँवो का तो जिक्र हैं पर बागोल का कंही जिक्र नहीं हैं। चालीसा चौहानों के बडुओं की बहियों में स्पष्ट हैं की संवत1080 (सन 1023) में नाडोल में रामपाल चौहान का राज था मगर बाद में 'बहेड़ा' (बेडा) के राव कर्मसिंह के ज़माने में विक्रम संवत1336 में मेवाड के सिसोदिया सद्रसिंह के हुए युद्ध के डेढ़ सौ साल बाद की घटनाओ में नव स्थापित गांव के रूप में 'बाघोल' ( बागोल) का कंही जिक्र हैं इससे माना जाता हैं की बागोल सोलहवी शताब्दी की शुरुआत में ही बसा होगा
इतिहास के जानकार लोगो का कहना हैं की बागोल के संस्थापक सोलंकी परिवार के पूर्वज ठाकुर मेवाड के रूपनगर घराने से देसुरी आए,वंहा से डायलाना गए। रूपनगर और डायलाना का सफ़र उनका डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा का रहा, डायलाना से निकले ठाकुर विरमदेव सोलंकी ने वरदिया गांव बसाया। वंहा जब भाइयो में सम्पति का बंटवारा हुआ, तो आज जंहा बागोल हैं, वह जमीन जिस भाई के हिस्से में आई उनका नाम था- केसुदास। केसुदास अपने भाइयो में छोटे थे वे एक बार वरदिया से शिकार पर निकले। सुमेर के आस पास जंगलो में जब वे विचर रहे थे, तो उनकी निगाह अचानक एक चमत्कारी द्रश्य पर पड़ी। अपने घोड़े को रोककर ठाकुर केसुदास वह नजारा हैरतभरी आँखों से देखने लगे। वे देख रहे थे कि एक मामूली सी बकरी बाघ से लड़ रही थी। बाघ उस बकरी के बच्चे को उठाकर ज्योंही मुडा तो बकरी ने लपककर सामने दोनों पैरो पर खड़ी रहकर आगे के दोनों पैर बाघ की आँखों में गडा दिए, पूरी ताकत से बकरी ने बाघ की दोनों आँखे फोड़ डाली। बाघ कराह उठा और बकरी के बच्चे को छोड़ दिया। छोटे ठाकुर केसुदास सोलंकी को लगा की इस जमीन में जरुर कोई देवी शक्ति हैं। यह जमीन उनके हिस्से में तो आई हुई थी ही, सो उनके मन में आया की क्यों यंही अपनी जागीर बसाई जाए। वैसे भी, वरदिया में तो उन्हें ठाकुर की पदवी हासिल होनी ही नहीं थी, सो उसी दिन 'छुरी' रोपकर उन्होंने अपने ठिकाने की स्थापना की। इतिहास के जानकारों का मत हैं की तब अपनी शासनधारा की शुरुआत करने की परम्परा 'छूरी' रोपकर ही हुआ करती थी।
मगर, इसके अलावा एक और भी कथा सूनने में आती हैं जो इस प्रकार हैं - 'वरदिया के ठाकुर जब अरावली के जंगलो में शिकार पर आये तो उन्होंने देखा की एक बकरी और बाघ आपस में खेल रहे हैं। तो उन्हें लगा की जिस भूमि में इतनी शक्ति हो कि बाघ की ताकत को भी बकरी जैसा ममतामयी बना डाले, या कमजोर बकरी में भी बाघ के साथ खेलने की हिम्मत पैदा कर दे तो उनके मन में उस भूमि पर अपना राज स्थापित करने की बात आई और उन्होंने जो गाँव स्थापित किया, वह बागोल बना।' घट्नाए दोनों करीब-करीब एकसी ही हैं पहली में लड़ने का वाकया हैं तो दूसरी में आपसी खेल की बात मगर बाघ और बकरी, शिकार और साहस दोनों में समान रूप से आता हैं। कंही कंही साम्य रखने वाली इन घटनाओ के भीतर ही 'बाघोल' (अब बागोल) नाम की सच्चाई छिपी हुई हैं करीब पांच सौ वर्ष पुरानी यह घटना आज भी लोगो को अपने गाँव के शौर्य, साहस और दया की प्रष्टभूमि वाले नाम-'बाघोल' की सार्थकता दर्शाती हैं बागोल की रावलापोल, जो गाँव के बीचो-बीच स्थित हैं, के बाहर नीम के पेड़ के नीचे 'छुरी रोपण स्थान' पर आज भी पांच सौ वर्ष पुराने इस इतिहास के अवशेष मौजूद हैं। बागोल में यही एक मात्र ऐतिहासिक अवशेष नहीं हैं। रावलापोल के भीतर माता भवानी जिसे 'जोगमाया' भी कहा जाता हैं, उनका स्थान भी सदियों पुराना हैं, जिसे स्थापना काल का माना जाता हैं

Sunday, October 17, 2010

श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ भगवान की अदभुत मूर्ति

राजस्थान के ऐतिहासिक मंदिरों में विशेष स्थान रखने वाला बागोल पुनर्निर्मित मंदिर, दुनिया भर में बागोल ही एकमात्र ऐसा ज्ञात स्थान हैं जंहा श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ भगवान की अदभुत मूर्ति हैं अगर इसे गौर से देखे तो दुनिया भर की भगवान पार्श्वनाथ की मूर्तियों से यह मूर्ति कई मायनों में भिन्न नजर आएगी लेकिन सबसे प्रमुख और स्पष्ट भिन्नता यह हैं की मूर्ति के दोनों कंधो से ऊपर उठे हुए दो नाग फन काढे हुए हैं जो पीछे खड़े शेषनाग के फन को सहारा देते हुए लगते हैं सामान्य तौर पर जो भी मुर्तिया देखी गई हैं उनमे भगवान पार्स्वनाथ के छत्र बने शेषनाग को अकेले ही दर्शाया गया हैं जैन ग्रंथो में भी ऐसी विशिष्ठ मूर्ति का कंही उल्लेख नहीं हैं बागोल में साठ साल पहले प्रतिष्टित यह मूर्ति आठवी या नौवी यानि कम से कम अग्यारह या बारह्सो वर्ष पुराणी प्राचीन और चमत्कारिक मूर्ति हैं ।शुद्ध सोने के रंग में शोभायमान पुनर्निर्मित यह स्वर्ण मंदिर आज राजस्थान के इतिहास में एकमात्र मंदिर हैं जो श्री स्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ द्वारा पुनः प्रतिष्ठापित मंदिर हैं

Thursday, October 14, 2010

NO JAIN TEMPLE WAS BURNT IN KASHMIR: OFFICIALS

NO JAIN TEMPLE WAS BURNT IN KASHMIR: OFFICIALS

The temporary structure housing a Jain temple in a local hotel was not burnt by a mob but was dismantled as a local hotel's contract with a Mumbai-based travel agency which built the structure on its premises has not been renewed. In the wake of reports in newspapers around India that the only Jain temple in Kashmir had been burnt by mobs leading the ongoing protests in the Valley, hotel and State officials told that no such incident had taken place. According to Ghulam Mohiuddin, manager of Silver Star Hotel in Lasjan on the outskirts of Srinagar, the temporary structure was built as per contract with Gem Tours and Travels, a Mumbai-based travel agency, which wanted to provide a place where Jain tourists from other parts of India could worship while visiting Kashmir. But the three-year contract ended and was not extended, so the structure was also dismantled, he said. The temple was established to attract Jain tourists. “As the situation in the Valley worsened and the tourist inflow declined, the contract was not renewed and we thought there is no need for this,” he added. The 8x8 pre-fabricated structure was dismantled in the presence of the priest, Hans Raj, on August 10.

Mr. Mohiuddin categorically denied that the temple was burnt or destroyed by a mob. “This is just not true. It is a fact that a large mob passed through this area also but no one entered our premises so the question of touching the temple does not arise,” he told The Hindu. Before the hotel management decided to remove the structure, the owners of the travel agency were contacted through the priest Hans Raj, who hails from Uttar Pradesh. “The idols were removed and properly handed over to them when they arrived in Srinagar the next day,” he said, adding the rumours seemed to be a conspiracy to spread hatred against Kashmiris. Deputy Commissioner (Srinagar) Meraj Kakroo also rubbished reports about the Jain temple being attacked. “The report about the burning of the temple is baseless and mischievous,” he said. He added that no proper temple existed and “as per our information, it was an internal arrangement made by the hotel owners.” Members of the community said there is, in fact, no Jain temple in Kashmir. While there were 40-odd Jain families living in the Valley prior to militancy, only five have stayed back. “There is no Jain temple here, though a family has set up one in their house,” Amit Jain, a businessman, said. Doshi family, which built the temple, flew in to Srinagar the day after the temple was dismantled and packed the idols in cardboard boxes and returned to Sabarmati.

Ahimsa Foundation feels that Jain Samaj should restrain in expressing its reactions and views in delicate religious and political matters affecting the feelings of other communities.