Sunday, October 24, 2010

इतिहास के आईने में बागोल की गाथा

आठवी सदी के आरम्भ में राजपूताने में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। इस काल के सबसे मजबूत राजवंश मरुधर और गुर्जर प्रदेश के प्रतिहार, मेवाड के गुहिलोत, चितौड और कोटा के मौर्य, परमार, चौहान, नाग और चापा थे परिवर्तित काल में भारत पर मुग़ल शासन के बाद अंग्रेजी राज से पूर्व राजपुताने की ऐतिहासिक थाती में परिवर्तन हुआ और एक नई संस्कृति का उदय हुआ, जो ठाकुर शाही की थी। राजा के नीचे इलाकाई और गाँव के ठाकुर। यह परंपरा भी आजादी के साथ सन 1947 के बाद ख़त्म हो गई। सन1952 में राजपुताना से राजस्थान का उदय हुआ, उसी राजपूताने की मारवाड़ रियासत और मेवाड रियासत के बीच झूलता रहा हैं पाली जिले का गाँव-बागोल।

बागोल का इतिहास 500 साल पुराना हैं बागोल के संस्थापको के वंशजो के मुताबिक सन1515 में यानि संवत 1572 में इसकी स्थापना की जानकारी हैं। जानकारी के अनुसार विक्रम संवत 1232 में वरसिंह चौहान ने जब हतुन्डिया के सिंगा राठोड को मारकर बेडा के 42 गाँवो पर अधिकार कर लिया था, तब मेवाड में रूपनगर के ठाकुरों ने देसुरी और आस पास के गाँवो की यात्रा की थी। उसमे अन्य गाँवो का तो जिक्र हैं पर बागोल का कंही जिक्र नहीं हैं। चालीसा चौहानों के बडुओं की बहियों में स्पष्ट हैं की संवत1080 (सन 1023) में नाडोल में रामपाल चौहान का राज था मगर बाद में 'बहेड़ा' (बेडा) के राव कर्मसिंह के ज़माने में विक्रम संवत1336 में मेवाड के सिसोदिया सद्रसिंह के हुए युद्ध के डेढ़ सौ साल बाद की घटनाओ में नव स्थापित गांव के रूप में 'बाघोल' ( बागोल) का कंही जिक्र हैं इससे माना जाता हैं की बागोल सोलहवी शताब्दी की शुरुआत में ही बसा होगा
इतिहास के जानकार लोगो का कहना हैं की बागोल के संस्थापक सोलंकी परिवार के पूर्वज ठाकुर मेवाड के रूपनगर घराने से देसुरी आए,वंहा से डायलाना गए। रूपनगर और डायलाना का सफ़र उनका डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा का रहा, डायलाना से निकले ठाकुर विरमदेव सोलंकी ने वरदिया गांव बसाया। वंहा जब भाइयो में सम्पति का बंटवारा हुआ, तो आज जंहा बागोल हैं, वह जमीन जिस भाई के हिस्से में आई उनका नाम था- केसुदास। केसुदास अपने भाइयो में छोटे थे वे एक बार वरदिया से शिकार पर निकले। सुमेर के आस पास जंगलो में जब वे विचर रहे थे, तो उनकी निगाह अचानक एक चमत्कारी द्रश्य पर पड़ी। अपने घोड़े को रोककर ठाकुर केसुदास वह नजारा हैरतभरी आँखों से देखने लगे। वे देख रहे थे कि एक मामूली सी बकरी बाघ से लड़ रही थी। बाघ उस बकरी के बच्चे को उठाकर ज्योंही मुडा तो बकरी ने लपककर सामने दोनों पैरो पर खड़ी रहकर आगे के दोनों पैर बाघ की आँखों में गडा दिए, पूरी ताकत से बकरी ने बाघ की दोनों आँखे फोड़ डाली। बाघ कराह उठा और बकरी के बच्चे को छोड़ दिया। छोटे ठाकुर केसुदास सोलंकी को लगा की इस जमीन में जरुर कोई देवी शक्ति हैं। यह जमीन उनके हिस्से में तो आई हुई थी ही, सो उनके मन में आया की क्यों यंही अपनी जागीर बसाई जाए। वैसे भी, वरदिया में तो उन्हें ठाकुर की पदवी हासिल होनी ही नहीं थी, सो उसी दिन 'छुरी' रोपकर उन्होंने अपने ठिकाने की स्थापना की। इतिहास के जानकारों का मत हैं की तब अपनी शासनधारा की शुरुआत करने की परम्परा 'छूरी' रोपकर ही हुआ करती थी।
मगर, इसके अलावा एक और भी कथा सूनने में आती हैं जो इस प्रकार हैं - 'वरदिया के ठाकुर जब अरावली के जंगलो में शिकार पर आये तो उन्होंने देखा की एक बकरी और बाघ आपस में खेल रहे हैं। तो उन्हें लगा की जिस भूमि में इतनी शक्ति हो कि बाघ की ताकत को भी बकरी जैसा ममतामयी बना डाले, या कमजोर बकरी में भी बाघ के साथ खेलने की हिम्मत पैदा कर दे तो उनके मन में उस भूमि पर अपना राज स्थापित करने की बात आई और उन्होंने जो गाँव स्थापित किया, वह बागोल बना।' घट्नाए दोनों करीब-करीब एकसी ही हैं पहली में लड़ने का वाकया हैं तो दूसरी में आपसी खेल की बात मगर बाघ और बकरी, शिकार और साहस दोनों में समान रूप से आता हैं। कंही कंही साम्य रखने वाली इन घटनाओ के भीतर ही 'बाघोल' (अब बागोल) नाम की सच्चाई छिपी हुई हैं करीब पांच सौ वर्ष पुरानी यह घटना आज भी लोगो को अपने गाँव के शौर्य, साहस और दया की प्रष्टभूमि वाले नाम-'बाघोल' की सार्थकता दर्शाती हैं बागोल की रावलापोल, जो गाँव के बीचो-बीच स्थित हैं, के बाहर नीम के पेड़ के नीचे 'छुरी रोपण स्थान' पर आज भी पांच सौ वर्ष पुराने इस इतिहास के अवशेष मौजूद हैं। बागोल में यही एक मात्र ऐतिहासिक अवशेष नहीं हैं। रावलापोल के भीतर माता भवानी जिसे 'जोगमाया' भी कहा जाता हैं, उनका स्थान भी सदियों पुराना हैं, जिसे स्थापना काल का माना जाता हैं

1 comment:

  1. बागोल के सोलंकी सिद्धराव सोलंकी के वंशज हैं, सिद्ध राव रूप नगर के राजा रायमलजी के चार कुंवरो में से एक थे। हमारे बड़वा पोथी अनुसार हम सामंतसिंगोत है। मेरे पूर्वजों ठाकुर साहब केनजी को 1585ईस्वी में मीठड़ी (जालोर) की जागीर मिली थी। कानसिंह मीठड़ी जालोर 🙏🙏

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